शिमला। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान के बाद इंतजार की घडिय़ां काटे नहीं कट रहीं। पूरे डेढ़ माह बाद 20 दिसंबर
कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कौलसिंह ठाकुर सार्वजनिक रूप से कहते फिर रहे हैं कि द्रंग विधानसभा क्षेत्र में उन्हें हराने के लिए न केवल कांग्रेस के दो नेताओं को खड़ा किया गया बल्कि उन पर करोड़ों रुपये भी खर्च किए गए। निश्चित रूप से उनका निशाना पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ही हैं। इसी तरह की बातें भाजपा में कुछ निवर्तमान मंत्रीगण भी लगा रहे हैं। दोनों ही दलों में भितरघातियों व विद्रोहियों की सूचियां तैयार की जा रही हैं, लेकिन यक्ष प्रश्न फिर भी बना हुआ है कि चुनाव में जनता ने किसका साथ दिया? गैस के महंगे सिलेंडर ने कांग्रेस को कितना आघात पहुंचाया और उसका लाभ लेने के लिए भाजपा के इंडक्शन चूल्हे ने कितना रंग जमाया या फिर प्रदेश सरकार के खिलाफ एंटी इन्कंबेंसी का स्तर कितना रहा?
खेल बराबरी का
प्रदेश के चुनावी परिदृश्य पर नजर डाली जाए तो प्रमुख दलों कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़े मुकाबले वाली स्थिति बनी रही। सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ यदि कुछ एंटीइन्कंबेंसी थी तो उतना ही नुकसान कांग्रेस को महंगाई और गैस का महंगा सिलेंडर पहुंचाता नजर आया। चुनाव में हिलोपा के प्रत्याशी भाजपा को नुकसान पहुंचाते नजर आए तो सीपीआईएम और सीपीआई के प्रत्याशियों ने कांग्रेस को भी उससे कम नुकसान नहीं पहुंचाया। दोनों ही दलों में समान रूप से भितरघात भी देखने को मिला। दोनों ही दलों से विद्रोह कर नेता निर्दलीय चुनाव में भी खड़े हुए। वैसे मात्र थोड़े से वोटों की स्विंग किसी भी दल को सत्ता से बाहर या अंदर कर सकती है।
माना जा रहा है कि हिलोपा, वामदलों और निर्दलीयों का आंकड़ा यदि 10 से आगे बढ़ गया तो सरकार गठबंधन की ही बनेगी। यहां समर्थन के मामले में रुझान कांग्रेस की ओर बढ़ सकता है, क्योंकि हिलोपा से जीत सकने वाले नेताओं का भाजपा में निवर्तमान मुख्यमंत्री प्रो. प्रेम कुमार धूमल से छत्तीस का आंकड़ा है और वामदल भी परंपरा का निर्वहन करते हुए कांग्रेस को ही समर्थन देंगे। निर्दलीय किसी के भी खाते में जा सकते हैं। ऐसे में भाजपा को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा सीटें लेनी पड़ेगी।
हिमाचल लोकतांत्रिक मोर्चा
प्रदेश में हिलोपा, सीपीआईएम और सीपीआई द्वारा बड़े उत्साह के साथ गठित हिमाचल लोकतांत्रिक मोर्चा (हिलोमो) चुनाव में कोई खास रंग नहीं दिखा पाया। चुनाव के दौरान न कोई साझा बैनर बना, न साझी बड़ी रैली हुई और न ही साझा घोषणापत्र जारी हुआ। सीटों के बंटवारे के समय भी अड़चनें आईं और कुछ सीटों पर सीपीआईएम और हिलोपा दोनों ने अपने प्रत्याशी खड़े कर दिए। प्रदेश में हिलोमो के बैनर तले महेश्वर सिंह के नेतृत्व में हिलोपा ने 36, सीपीआईएम ने 15 और सीपीआई ने 6 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए। इसके अतिरिक्त विभिन्न 4 सीटों पर मोर्चे ने अन्य दलों के विद्रोही प्रत्याशियों को अपना समर्थन देने की घोषणा की है। इन कुल 61 सीटों में से हिलोमो 8-10 सीटों पर जीत की उम्मीद लगाए हुए है। कुल्लू, आनी, जसवां-परागपुर, बैजनाथ, पालमपुर और नाहन सहित लगभग एक दर्जन सीटों पर हिलोपा के प्रत्याशी अन्य दलों को मुकाबले की टक्कर दे रहे हैं। सीपीआईएम शिमला शहरी, कसुम्पटी, ठियोग और जोगिंद्रनगर सीटों पर कड़े मुकाबले में है और यदि मतदाताओं का रुझान हाल ही में शिमला नगर निगम के हुए चुनावों की तरह रहा तो उसके तीन प्रत्याशी जीतने की स्थिति में पहुंच सकते हैं। नगर निगम के चुनाव में सीपीआईएम ने मेयर और डिप्टी मेयर के पदों पर मतों की अच्छी खासी बढ़त के साथ कब्जा किया था। डिप्टी मेयर टिकेंद्र सिंह पंवर इस समय शिमला शहरी सीट से विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं।
सीपीआईएम का अनूठा चुनाव प्रचार
चुनाव प्रचार के दौरान एक दिलचस्प बात यह देखने में आई कि एक ओर जहां कांग्रेस, भाजपा और कुछ अन्य दलों ने प्रचार सामग्री, बड़ी रैलियों और विज्ञापनों पर खुल कर पैसा बहाया, वहीं सीपीआईएम ने पुरानी शैली को अपनाते हुए मतदाताओं तक अपनी बात ज्यादातर नुक्कड़ नाटकों और डोर-टू डोर कन्वेंसिंग के द्वारा ही पहुंचाई। पार्टी के न कहीं पर बड़े बैनर देखने को मिले और न ही उसने किसी समाचारपत्र या चैनल को कोई विज्ञापन दिया। माकपा ने नगर निगम के चुनाव के दौरान भी यही सब किया था।
प्रो. धूमल का मिशन रिपीट
निवर्तमान मुख्यमंत्री प्रो. प्रेम कुमार धूमल के ‘मिशन रिपीट ‘ के पीछे भावनात्मक पक्ष भी जुड़ा हुआ है। वास्तव में प्रदेश में भाजपा को पहचान देने का श्रेय पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार को दिया जाता है, लेकिन उनके नेतृत्व में कभी भी सरकार पूरे पांच साल नहीं चल पाई। अढ़ाई साल पूरे होने तक ही सरकारें गिर गईं। प्रदेश में इस मिथ को प्रो. प्रेम कुमार धूमल ने तोड़ा, जब उनके नेतृत्व में वर्ष 1998 में बनी सरकार पूरे पांच वर्ष चली। फिर कहा जाने लगा कि प्रदेश में भाजपा स्वयं पूर्ण बहुमत लेकर सरकार नहीं बना पाई है। प्रो. धूमल ने इस मिथ को वर्ष 2007 के चुनाव में पूर्ण बहुमत से सरकार बना कर तोड़ा। प्रदेश में भाजपा के लिए एक बात जो शेष रह गई है वह यह कि अभी तक यहां कभी भी उसकी सरकार रिपीट नहीं हुई है। प्रो. धूमल की यह दिली इच्छा रही है कि वे इस मिथ को भी इस चुनाव में तोड़ें। अपनी इस मंशा को उन्होंने कई बार मीडिया के सामने जाहिर भी किया है और वे इसके लिए निरंतर प्रयासरत भी नजर आए। अब देखना यह है कि हिलोपा और कुछ क्षेत्रों में भितरघात तथा एंटी इन्कंबेंसी से लड़ते हुए क्या वे अपने मिशन में कामयाब हो पाएंगे? प्रदेश में प्रो. धूमल भाजपा हाईकमान की पहली पसंद रहे हैं। यदि वे मिशन रिपीट में कामयाब हो जाते हैं तो हाईकमान में उनकी पकड़ और मजबूत हो जाएगी और यही बात उनके दलगत विरोधियों को पसंद नहीं है।
वीरभद्र सिंह की तैयारियां
कांग्रेस के पक्ष में बहुमत का जुगाड़ होने की स्थिति में वीरभद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनने के लिए अतिरिक्त तैयारियों की जरूरत पड़ेगी। इन दिनों वीरभद्र सिंह और उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह के बहुचर्चित सीडी कांड पर अदालत में तेजी से सुनवाई हो रही है। पूर्व मंत्री मेजर विजय सिंह मनकोटिया ने लगभग पांच वर्ष पूर्व इस सीडी को सार्वजनिक किया था। उस समय मेजर मनकोटिया अपने भाषणों में वीरभद्र सिंह और उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह पर ताबड़तोड़ हमले करते हुए उन्हें ‘बंटी और बबली’ कहते थे। अब विधानसभा चुनाव से ठीक पहले वीरभद्र सिंह की मेहरबानी से मनकोटिया की कांग्रेस में वापसी हो गई और उन्हें शाहपुर से पार्टी का टिकट भी मिला। इधर कोर्ट में सीडी मामले में सुनवाई के दौरान मनकोटिया अपने पूर्व के बयानों से लगभग पलट ही गए। इस केस के अन्य गवाह भी अब पहले दिए बयानों पर टिके रहने के बजाए यहां-वहां की हांकने लगे हैं। इस सीडी मामले में अदालत में आरोप तय होने पर ही वीरभद्र सिंह को केंद्रीय मंत्रीपद से त्यागपत्र देना पड़ा था। अब यदि अदालत में गवाहों का यही रवैया रहा तो हाईकमान के समक्ष मुख्यमंत्री पद के लिए उनका दावा और मजबूत हो जाएगा। उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कौलसिंह ठाकुर बार-बार कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री पद के लिए हाईकमान ‘जीरो टालरेंस टू क्रप्शन’ को ही आधार बनाएगी। तो क्या वीरभद्र सिंह ‘पाक साफ’ होने की ओर अग्रसर हैं?