सेब के बागीचों में फलों में रंगत बढ़ाने के लिए इथरेल की स्प्रे को लेकर ना केवल बागवानों, बल्कि राजनेताओं तक में भी कई तरह की भ्रांतियां हैं। इथरेल को अकसर एक घातक रसायन के रूप में प्रचारित कर इसके प्रयोग पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठती रहती है, जबकि हकीकत इससे बिल्कुल विपरीत है। उचित समय और सही मात्रा में इथरेल का प्रयोग कतई हानिकारक नहीं है।
दशकों पहले मैं स्वयं इस रसायन के शोध से जुड़ा रहा हूं। हिमाचल प्रदेश में इसका उपयोग करने वाला मैं सबसे पहला शोध छात्र था। इसलिए इस रसायन के बारे में लोगों की भ्रांतियां दूर करना मेरा फर्ज भी बन जाता है। सबसे पहली बात जो मैं यहां बताना चाहूंगा वह यह है कि इथरेल कोई कलर स्प्रे नहीं है। लोगों को लगता है जैसे यह कोई रंग है, जिसे छिड़कने से सेब के फल लाल हो जाते हैं। वास्तव में ऐसा बिलकुल भी नहीं है।
क्या है इथरेल?
इथरेल एक रसायन है, जिसे ईथेफोन भी कहते हैं। इसका पूरा नाम 2-क्लोरोईथेन फोस्फोनिक एसिड है। यह बाज़ार में घोल के रूप में उपलब्ध है, जिसमें एक्टिव इंग्रीडिएंट की मात्रा कोई 40 प्रतिशत होती है। इस रसायन की विशेषता यह है कि यदि इसे पानी में मिलाया जाये तो यह विघटित होना शुरू हो जाता है और इस विघटन की प्रक्रिया में एथिलीन गैस रिलीज़ होती है। एथिलीन गैस एक हॉरमोन भी है और इस से फल पकने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इसे सेब के अतिरिक्त केला, आम, चीकू आदि पर भी इसी मकसद से प्रयोग किया जाता है।
इसके छिड़काव से डिलीशियस वर्ग के सेबों में लाल रंग आ जाता है। इस रसायन का कोई भी रेजीड्यूयल इफेक्ट नहीं होता, क्योंकि एथिलीन एक गैस है जो अपना असर करने के बाद हवा में मिल जाती है।
इथरेल का इतिहासः
इथरेल की खोज 1965 में हुई थी। भारत में इसका उपयोग सर्वप्रथम 1971 में उदयपुर विश्वविद्यालय में डा. कर्ण सिंह चौहान के मार्ग दर्शन में उनके शोध छात्रों द्वारा, जिनमें मैं भी एक था, फालसे और केले के फलों को पकाने के लिए किया गया था।
हिमाचल में सर्वप्रथम इथरेल का प्रयोग 1973 में स्वर्गीय डा. हरजीत सिंह धूरिया के मार्ग दर्शन में पहले कोटखाई और फिर राजगढ़ में मास्टर जोगिंदर सिंह के बागीचे में किया गया। समस्या यह थी कि निचले इलाकों के बागीचों में सेब के फलों पर पूरा लाल रंग विकसित नहीं होता था। डाक्टर धूरीया इस काम के विशेषज्ञ थे। उन्होंने इस समस्या का हल खोजने के लिए इथरेल का प्रयोग किया, जिसमें उन्हें अद्भुत सफलता मिली। नतीजा यह हुआ कि यह रसायन निचले इलाके के बागबानों ने एक दम अपना लिया। इससे निचले इलाकों के सेब के रंग और गुणवत्ता में बहुत सुधार हुआ और उनको बहुत लाभ हुआ। अभी तक बागबान इसका उपयोग कर रहे हैं।
मैं उस समय सोलन (नौणी बाद में बनी) में डाक्टर धूरिया का सहायक प्रोफेसर था और इन प्रयोगों में सम्मिलित था। राजगढ़ में पहली बार इथरेल का स्प्रे मैंने ही किया था और यह मास्टर जोगिंदर सिंह के बागीचे हुआ था।
व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के कारण हो रहा विरोधः
बाद में इस मुद्दे पर ऊपरी इलाके और निचले इलाके ( जैसे राजगढ़) के सेब के बागबानों में बिजनेस राइवलरी (rivalry) के कारण ऊपरी इलाके वालों ने इथरेल के उपयोग का विरोध करना शुरू कर दिया और वे इसे बैन करने की मांग करते रहे। कई बार हमारे राजनेता भी इन बागवानों की हां में हां मिलाने लगते हैं। यह सिलसिला अभी तक चल रहा है। इथरेल न तो बैन होगा और न ही बंद होना चाहिए। इथरेल को यूनिवर्सिटी ने भी रिकमेंड किया है, क्योंकि यह सुझाव रिसर्च पर आधारित था।
इथरेल क्योंकि फल पकने की प्रक्रिया में तेजी लाता है, इसलिए फलों की भंडारण क्षमता पर इसका कुछ असर पड़ सकता है। इस समस्या का भी समाधान है। इसके लिए एक ग्रोथ रिटारडैन्ट रसायन Alar आता था, शायद अब भी मिलता हो। अगर फलों पर इसका छिडकाव किया जाए तो उनकी भंडारण क्षमता बढ़ जाती है। अधिक जानकारी के लिए बागवानों को यूनिवर्सिटी के संबंधित वैज्ञानिकों से जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। इन्टरनेट पर सर्च कर भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यूनिवर्सिटी को भी चाहिए कि वो आगे आकर इथरेल को लेकर बागवानों की शंकाओं का समाधान करे।