उत्तराखण्ड में जिस सरकार के काल में कुछ महीने पहले 25 हजार की नौकरी मांग रहे पीएचडी धारकों पर जुल्म ढाये गए, उसी निलम्बित सरकार के मुखिया हरीश रावत इंटर कॉलेजों के गेस्ट टीचरों की नौकरी की मांग पर सड़क पर सो गए। रावत जी की यह पहल स्वागतयोग्य है, बशर्ते इसमें उद्देश्यीय शुचिता हो। पीएचडी वाले तब न जाने कितनी बार सीएम से मिले, लेकिन कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं की गयी।
यह सियासत की निकृष्टता ही कही जानी चाहिए कि सीएम के सामने इस मसले पर अधिकारी सकारात्मक निर्णय का आश्वासन देते थे, लेकिन दूसरे दिन सचिवालय जाने पर इनका स्वभाव ऐसा बदला आता था, जैसे गुब्बारे की हवा निकल गयी हो। श्रीधर बाबू अधांकी, एमसी जोशी और लक्ष्मण सिंह इन अधिकारियों में शुमार हैं। पीएचडी वाले जब इनके पास गुहार लगाने जाते थे तो ये ऐसा व्यवहार करते थे, जैसे इनकी तिजोरियों में रखे गहने मांगे जा रहे हों। चालू, चारण और चापलूसी के गुणों से युक्त राकेश शर्मा नामक अधिकारी का रवैया तो पीएचडी वालों के इतिहास के काले पृष्ठ पर लिखा गया। इंदिरा हृदयेश तो इन निरीह लोगों के घावों पर तेजाब की बारिश करती रहीं। इन सब लोगों की जुंडली ने कभी भी इस अन्याय के अंधकार को मिटाने की कोशिश नहीं की।
पीएचडी वालों का कोई सियासी आका नहीं था, इसलिए उन्हें हमेशा हाशिये पर रखा गया। निकृष्ट सियासत के कुकर्म की बानगी देखिये कि एक बार हरीश रावत से मिलने गए पीएचडी धारकों को उन्होंने टका सा जवाब दे दिया कि अपनी मन्त्री से मिलो। सीएम के ही एक खास आदमी और छपास रोगी का कहना था कि सीएम इस मामले का समाधान इसलिए नहीं कर पाए, क्योंकि मंत्रियों के विभागों में सीएम की दखल की शिकायत ‘दिल्ली’ तक पहुंच जाती है। अगर यह बात भी सच है तो यह सबसे बड़ा राजनीतिक बलात्कार और सत्ता का चीरहरण है।
बहरहाल, अब केंद्र इन लोगों के मसले(रेगुलेशन-2009) का लगभग समाधान कर चुका है। अब देखना यह है कि जून में कॉलेजों में होने वाली भर्ती में भी इन लोगों को न्याय मिल पाता है या नहीं। काश! अब इन लोगों के लिए भी सड़क पर सोकर हरीश रावत जी अपने पिछले ‘पाप’ को पुण्य में बदल पाते।
और अंत में—-
सियासत का स्वांग बड़ा निराला होता है,
यहां लगभग हर दिल काला होता है।
बरगद को निहारते हैं गमले में बैठकर,
यहां नपुंसक भी मर्दानी ताकत वाला होता है।