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एचएनपी ब्लॉग

कहानी- सीताराम सीतापुर

ब्रिटिश शासनकाल में मुंशी सीताराम डाक विभाग में मुलाजिम थे। वे चिट्ठियां बांटते, लोगों को चिट्ठियां पढ़कर सुनाते और  उनके लिए चिट्ठियां लिखते भी थे। इसीलिए उनका नाम सीताराम से मुंशी सीताराम पड़ा।
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उनकी नौकरी अल्पकालिक थी। गर्मियों में जब देश की राजधानी दिल्ली से शिमला शिफ्ट होती तो मुंशी जी की नौकरी शुरू हो जाती थी। सर्दियों के लिए जब राजधानी वापस दिल्ली चली जाती तो वे अगले 6 माह के लिए बेरोजगार हो जाते। लेकिन सूझबूझ से वे सर्दियां पूरी मौजमस्ती से बिताते और कुछ अतिरिक्त कमाई भी कर लेते।
मुंशी जी नौकरी छूटते ही शिमला से पुराने गर्म कपड़ों की गठरियां खरीदते और ऊपर पहाड़ों में ले जाकर कपड़े बेचते। वे व्यवहारकुशल थे और साथ ही गीत, संगीत, नृत्य के अच्छे फनकार भी। इस कारण भी पहाड़ों में लोग उनकी खूब आवभगत करते। जहां भी रात को ठहरते, खूब महफिल जमती। इसी दौरान वे कपड़े भी बेचते जाते।
उन दिनों आज की तरह मनोरंजन के अन्य साधन नहीं थे। इसलिए पहाड़ीजन सर्दियों की लंबी रातें गाते नाचते हुए बिताना पसंद करते थे। इन दिनों खेतों, बागीचों में कोई खास काम नहीं होता है। ईंधन के लिए लकड़ियां भी पहले ही काटकर इकट्ठी की हुई होती हैं। मात्र मवेशियों को चारा पानी देने का काम होता है जो ज्यादातर घरों की महिलाएं ही निपटाती हैं। चूल्हे चौके का काम भी महिलाओं के ही पास रहता हैं। पुरुषों के लिए बहुत कम काम बचता है।
शायद इसलिए भी लोग सर्दियां पड़ते ही मुंशी जी का इंतजार करने लगते। और जब उन्हें कहीं से उड़ती हुई खबर मिलती है कि मुंशी जी फलां गांव के फलां छोर तक कपड़े की गठरी लिए पहुंच गए हैं तो ग्रामीणों में खुशी की लहर दौड़ जाती। गांव भर के संगीत- नृत्य प्रेमी यहां वहां से हारमोनिम, बांसुरी, ढोलक, खंजरी आदि वाद्य जुटाने शुरू करते। मुंशी जी को सामान सहित लाने के लिए किसी को एक घोड़ा लेकर उनके पास भेज दिया जाता। गांव में उनकी खूब आवभगत होती और फिर रात रात भर महफिलों का दौर शुरू हो जाता।
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बस इसी तरह गांव दर गांव मुंशी जी का पड़ाव पड़ता। लोग उनकी खूब खातिरदारी करते। लगे हाथ उनके कपड़ों- गरम कोट, स्वैटर, शाल, टोपियों आदि की बिक्री भी होती रहती। मुनाफे का एक- एक रुपया जोड़ते रहते और जब सर्दियां बीतने को आतीं तो वापस घर लौट आते। सबसे पहले सारी जमा रकम डाक विभाग में अपने खाते में जमा करा देते। गर्मियों में फिर से चिट्ठियां बांटने की नौकरी पर चले जाते।
बस ऐसे ही मजे से वक्त गुजरता चला जा रहा था। लोगों ने उन्हें काफी समझाया कि- ‘दर- दर भटकना बहुत हो गया, भाइयों ने अपने घरबार बसा लिए हैं, अब तुझे भी गृहस्थी जमा लेनी जाहिए।’ लेकिन मुंशी जी को तो बस अपनी बेपरवाह आवारगी पसंद थी। वे इसी में मस्त थे। दूसरी कोई बात उन्हें सूझती ही नहीं थी। वन में स्वच्छंद विचरण करने वाले हिरण को किसी खूंटे से बंधना भला कहां पसंद होता है?
…फिर एक दिन वह भी आया जब भाइयों में जमीन का बंटवारा हो गया तो उन्हें कुछ होश आया। सामाजिक दबाव भी बढ़ता जा रहा था। क्या करें क्या नहीं, समझ ही नहीं आ रहा था। काफी सोचा विचारा और फिर पता नहीं कहां से कोई प्रेरणा लेकर उन्होंने जीवन में कुछ नया करने का फैसला ले लिया। यानी गृहस्थी बसाने का मन बना लिया।
बंटवारे में मुंशी जी के हिस्से गांव के किनारे ठंडे से भाग में जमीन का टुकड़ा आया। शीतलता के कारण उस भूभाग को शील कहा जाता था।
मुंशी जी ने बंटवारे में मिले भूमि के टुकड़े पर कोई ऐतराज नहीं किया, बल्कि मन ही मन प्लान बनाया कि यहां सेब का बागीचा लगाउंगा, जो इस क्षेत्र का पहला बागीचा होगा। उन दिनों ऊपरी शिमला में कोटगढ़ के बाद जुब्बल, कोटखाई, कुमारसेन, चौपाल से लेकर ठियोग तक सेब के बागीचों का शोर मचा हुआ था। शायद वहीं से उन्हें इसकी प्रेरणा मिली होगी।
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मुंशी जी को ऐतराज था तो केवल इस जगह के नाम को लेकर। शील !!! भला यह भी कोई नाम हुआ? ऐसे लगता है जैसे सर्दी के मौसम में किसी ने ऊपर ठंडे पानी का घड़ा उंडेल दिया हो।
…तो क्या मुंशी सीताराम अब शील में रहेगा? नहीं, बिल्कुल भी नहीं। वे सोचते रहे। …कोई समाधान? ….सबसे पहले इस जगह का नाम बदलना पड़ेगा। कोई फड़कता हुआ सा नाम होना चाहिए। शील तो बिल्कुल नहीं चलेगा…।
मुंशी जी को पता नहीं क्यों बसंतपुर, धर्मपुर, सुल्तानपुर, सुजानपुर जैसे नाम पसंद थे। गहन विचार मंथन के बाद उन्होंने जगह का नाम अपने नाम सीताराम को साथ जोड़ते हुए सीतापुर रखने का निर्णय लिया। फिर कुछ राजस्व महकमे की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उन्होंने एक दिन भाइयों और गांव वालों के समक्ष ऐलान कर दिया- ‘देखिए! अब आगे कोई भी इस जगह को शील वील ना कहें, बल्कि सीतापुर कहें। अब यह शील नहीं, सीतापुर है।’
इस तरह मुंशी सीताराम अब शील के बजाए सीतापुर में रहने लगे। गांव वालों ने खूब हंसी उड़ाई। आपस में बतियाये- ‘ये बचपन से ही नौटंकी करता आया है, आगे भी नौटंकी ही करेगा। घर गृहस्थी बसाना इसके बस की बात नहीं है। …करने दो इसे जो करना चाहे। …हमें क्या?’
लेकिन मुंशी जी धुन के पक्के थे। उन्होंने वहां घर बनाया और पहाड़ों से ही अपने लिए एक दुल्हन भी छांट लाए। फिर वहीं से सेब के पौधों का जुगाड़ कर और कुछ आरंभिक तकनीकी ज्ञान हासिल कर बागीचा भी रोप लिया। शेष कुछ भाग में खेतीबाड़ी शुरू की।
सब कुछ योजना के अनुसार चलता रहा, लेकिन अभी भी उन्हें लगता था कि पता नहीं बाहर लोग सीतापुर को जानते भी होंगे या नहीं। वे अभी भी बाहर लोगों के पूछने पर अपने गांव का नाम सीतापुर कहने के बजाए शील ही कह देते थे। हालांकि यह भी बता देते कि यह नाम बदलकर अब सीतापुर हो गया है।
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मुंशीजी एक दिन दूर किसी जानकार के यहां विवाह समारोह में शामिल थे। सर्दियों के दिन थे। लोग कमरों में बैठे अंगीठी ताप रहे थे। एक- दूसरे से परिचय भी हो रहा था। आंगन में मंडप सजा था, जहां परंपरागत रूप से विवाह की रस्में निभाई जा रही थीं।
कमरे में साथ बैठे एक व्यक्ति ने मुंशी जी से पूछा- “आपका घर कहां है?”
मुंशी जी सीतापुर कहना चाहते थे, लेकिन झिझके कि इस नाम से उनके गांव को यहां कौन जानता होगा। उन्होंने कहा, “देवठी के नजदीक शील में रहता हूं।”
“शील? ये कहां पड़ता है?” उस व्यक्ति ने कहा।  “मैं उस ओर गया हूं। वहां एक जगह है सीतापुर, जहां किसी ने सेब का बागीचा भी लगाया है। वहां से कितनी दूर है आपका गांव?”
मुंशी जी यह सुनकर बहुत खुश हुए। उन्होंने तपाक् से कहा, “बस सीतापुर में ही है और वह सेब का बागीचा भी मैंने ही लगाया है।”
मुंशी जी अब बहुत खुश थे कि जिस जगह का उन्होंने अपने नाम से नामकरण किया था, आज लोग उसे दूर- दूर तक जानने लगे हैं। वे मन ही मन बड़बड़ाए, “अब तो मैं रहूं ना रहूं, मेरा नाम हमेशा रहेगा।” 
साथ लगते गांव देवठी में सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की ओर से सिनेमा शो रखा गया था। दूर- दूर से लोग सिनेमा देखने पहुंचे। आयोजकों ने शो से पहले कुछ स्थानीय गायक कलाकारों की रिकार्डिंग भी करनी चाही। इसमें भी मुंशी जी सबसे आगे थे। वे रिकार्ड के लिए जब भी कोई गीत गाते तो अंत में अपना परिचय जोड़ते हुए कहते- ‘सीताराम सीतापुर।’
फिल्म शो के दौरान जब रील बदलने के समय कुछ देर के लिए शो रोकना पड़ता तो आपरेटर खाली समय में दर्शकों के मनोरंजन के लिए मुंशी जी का कोई रिकार्डिड गीत बजा देता। गीत के अंत में जब- ‘सीताराम सीतापुर’ आता तो लोग भी जोश में आकर दोहराते- सीताराम सीतापुर…सीताराम सीतापुर…। (समाप्त)
लेखक- एच आनंद शर्मा, h.anandsharma@yahoo.com
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एच. आनंद शर्मा

H. Anand Sharma is active in journalism since 1988. During this period he worked in AIR Shimla, daily Punjab Kesari, Dainik Divya Himachal, daily Amar Ujala and a fortnightly magazine Janpaksh mail in various positions in field and desk. Since September 2011, he is operating himnewspost.com a news portal from Shimla (HP).

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