नई दिल्ली। उत्तराखंड में हरीश रावत की सरकार को गिराने और उसकी जगह पर दलबदलुओं की मदद से भाजपा की सरकार को बैठाने की मोदी सरकार की घिनौनी कोशिश को सतर्क न्यायपालिका ने विफल कर दिया है। अदालत की अभूतपूर्व निगरानी में उत्तराखंड विधानसभा में हुए विधायकों के वोट पर आधारित शक्ति परीक्षण में हरीश रावत की सरकार जीत गई है। इस प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई को दो घंटे के लिए राज्य पर लगा राष्ट्रपति शासन निलंबित कर दिया था।
इससे पहले उत्तराखंड हाईकोर्ट ने मुख्य न्यायाधीश द्वारा सुनाए गए एक मील का पत्थर बनने वाले फैसले में राज्यपाल के निर्देश पर होने जा रही विश्वासमत परीक्षा से सिर्फ एक दिन पहले राज्य पर राष्ट्रपति शासन लादे जाने की आलोचना की थी। अदालत के फैसले में कहा गया था, ‘राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को वृहत्तर फलक पर देखा जाना चाहिए, क्योंकि भारत राज्यों का संघ है और एक संघीय ढांचे में केंद्र तथा राज्य की सत्ता अपने-अपने क्षेत्रों में संप्रभु होती है।… एक बात साफ हो जानी चाहिए कि राष्ट्रपति शासन का उपयोग अंतिम उपाय के रूप में और अधिकतम सावधानी के साथ ही किया जाना चाहिए।’
हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि 29 अप्रैल को विधानसभा में विश्वासमत परीक्षा होनी चाहिए। केंद्र सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी और उससे हाईकोर्ट के विश्वासमत परीक्षा के आदेश पर रोक लगाने का आग्रह किया था। सुप्रीम कोर्ट कि जिस दो सदस्यीय खंडपीठ ने उक्त अपील सुनी थी, 29 अप्रैल को विश्वासमत परीक्षा कराए जाने के निर्णय पर इस आधार पर स्थगनादेश जारी कर दिया कि अदालत के सामने हाईकोर्ट का वह लिखित आदेश आया ही नहीं था, जिसके आधार पर संबद्घ पक्षों ने अपनी अपीलें दायर की थीं।
आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई की और अपनी टिप्पणियों में इस मामले में केंद्र सरकार के आचरण की, और जिस तरह राष्ट्रपति शासन थोपा गया था, उसकी तीखी आलोचना की। इसके साथ ही उसने केंद्र सरकार से सवाल किया कि क्या उसे इस मुद्दे के समाधान के लिए सदन में शक्ति परीक्षण कराया जाना मंजूर है। इस मामले में घिर गई केंद्र सरकार को इसके लिए अपनी सहमति जतानी पड़ी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई को सदन में शक्ति परीक्षण कराने का आदेश दे दिया और इसके लिए दो घंटे के लिए राष्ट्रपति शासन निलंबित करने का भी आदेश दे दिया। इसके साथ ही अदालत ने इस संबंध में विधानसभा की कार्रवाई की निगरानी करने के लिए एक अधिकारी की भी नियुक्ति कर दी।
कांग्रेस के नौ दलबदलू विधायकों का राज्य सरकार को गिराने के लिए इस्तेमाल करने की सारी तिकड़मों पर उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस फैसले ने पानी फेर दिया, जिसमें स्पीकर द्वारा इन विधायकों को अयोग्य करार दिए जाने का अनुमोदन किया गया था। सुप्रीमकोर्ट ने हाईकोर्ट के उक्त फैसले पर स्थगनादेश जारी करने से भी इंकार कर दिया। इस तरह, समय रहते न्यायिक फैसले ने सुप्रीम कोर्ट के ही 1994 के बोम्मई निर्णय की पूरी पुष्टि की है, जिसमें यह तय किया गया था कि सदन में शक्ति परीक्षण ही इसका निर्णय करने का एकमात्र तरीका है कि किसी राज्य सरकार को सदन का विश्वास हासिल है या नहीं। राज्यपाल द्वारा या केंद्र द्वारा दूसरे किसी भी तरीके से इसका निर्णय नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा इस मामले में हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की एक खासियत यह रही कि उनमें संविधान की धारा-356 के दुरुपयोग को इस तरह निरस्त किया गया है जिससे ऐसी सरकार का बहाल होना सुनिश्चित किया जा सके, जिसे विधायिका में बहुमत का समर्थन हासिल हो।
उत्तराखंड प्रकरण को उन सभी के लिए कड़ी चेतावनी साबित होना चाहिए, जो निर्वाचित राज्य सरकारों को गिराने के लिए धारा-356 का सहारा लेने की नीयत रखते हों। उम्मीद की जानी चाहिए कि कांग्रेस पार्टी को भी सही सबक मिल गया होगा। आखिरकार, अतीत में तो कांग्रेस पार्टी की ही केंद्र सरकारों ने ही गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों को गिराने के लिए राष्ट्रपति शासन लगाने की व्यवस्था का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया था। अब वह खुद उसी शैतानी व्यवस्था की शिकार हो रही है।
जहां तक मोदी सरकार का सवाल है, उसकी छवि का बुरा हाल हुआ है। मोदी-शाह जोड़ी की अलोकतांत्रिक चालों के रास्ते में बाधा आ खड़ी हुई है। फिर भी इस निजाम की बढ़ती तानाशाही की प्रवृत्ति को देखते हुए यह उम्मीद करना बहुत ज्यादा होगा कि वे अपने तौर-तरीकों को दुरुस्त करेंगे। इसलिए सिर्फ न्यायपालिका पर ही निर्भर न रहते हुए तमाम धर्मनिरपेक्ष व जनतांत्रिक ताकतों को एकजुट होकर जनतंत्र तथा संघीय व्यवस्था पर तमाम हमलों का प्रतिरोध करना होगा।
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