शिमला। हिमाचल प्रदेश में एप्पल इंडस्ट्री अनधिकृत महंगे हार्श रसायनों और प्लांट ग्रोथ रेगुलेटर (PGR) विक्रेताओं के जाल में तेजी से फंसती जा रही है, जबकि इसके घातक परिणाम भी लगातार सामने आ रहे हैं। इस मामले में सरकारों और कृषि एवं बागवानी विभाग की लापरवाही कई तरह के प्रश्नों को जन्म दे रही हैं। विदेशी कंपनियों के बहकावे में बागवान भी केवल पौधों में तरह- तरह के स्प्रे करके ही सबकुछ पा लेना चाहते हैं, मिट्टी पर उचित ध्यान नहीं दिया जा रहा।
वास्तव में मिट्टी का सीधा संबंध जीवन से है। यह सभी के लिए स्त्रोत भी है और गंतव्य भी। रसायनों के असंतुलित और अंधाधुंध इस्तेमाल से मिट्टी में पोषक तत्वों के क्षय, बढ़ती लागत और फसलों के गिरते उत्पादन पर आए दिन चर्चा होती है। लेकिन इस विषय में तमाम सरकारों की चिंता और प्रतिबद्धता बयानों और कागजों से आगे बढ़ ही नहीं रही।
हिमाचल भी इसका अपवाद नहीं है। सच्चाई यह है कि अब अधिकतर किसान- बागवान महंगे हार्श रसायनों और प्लांट ग्रोथ रेगुलेटर (PGR) आदि पर निर्भर हैं। केन्द्रीय कीटनाशक बोर्ड एवं प्रमाणन कमेटी (सीआईबी एंड आरसी), कृषि विश्वविद्यालय, बागवानी विश्वविद्यालय, कृषि और बागवानी विभाग जैसी तमाम सरकारी एजेसियां पंगु बनी हुई हैं।
हिमाचल में भी एग्रो सेक्टर का बढ़ता दायरा विभिन्न प्रकार की उर्वरक, कीटनाशक और फफूंदनाशक आदि दवाएं तैयार करने वाली देसी- विदेशी कंपनियों के कारोबार को भी जगह दे रहा है। फसलों को बीमारियों से सुरक्षा और गुणवत्ता में इजाफे के वादे के साथ ये कंपनियां अपने उत्पाद बेचती हैं। कुछ कंपनियां तो पैदावार में भी बढ़ोतरी के दावे करती हैं। लेकिन यदि हम फसल सुरक्षा चक्र की बात करें तो यह दिनों- दिन कमजोर ही पड़ता जा रहा है।
प्रदेश में यह सिलसिला उस वक्त से शुरू हुआ जब किसानों-बागवानों को महंगे उत्पाद बेचने वाली कंपनियों ने रिझाना शुरू किया। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि महंगे हार्श प्रोडक्ट कई बार एक समस्या का तो निदान करते हैं, लेकिन एक नई समस्या को भी जन्म दे जाते हैं।
हम करीब दो- तीन दशक पीछे जाएं तो साधारण दवाओं के इस्तेमाल से हमारी फसलें एकदम सुरक्षित थीं। स्कैब जैसी महामारी पर भी हमने इन्हीं साधारण दवाओं के बूते काबू पाया। लेकिन मार्केट में दवाओं- रसायनों की बाढ़ के बाद किसान भी समझ नहीं पा रहे हैं कि वे बेहतर गुणवत्ता की प्राप्ति और फसल को सुरक्षित रखने के लिए कौन की स्प्रे करें।
सेब सहित अन्य फलों को कीटों और फफूंदों आदि के प्रकोप से बचाने के लिए बागवानी विभाग और नौणी विश्वविद्यालय हर साल छिडक़ाव सारणी जारी करते हैं, और सारणी में हर बार थोड़ा-बहुत परिवर्तन भी किया जाता है। लेकिन सारणी में सुझाई गई दवाओं के अलावा बाजार में दर्जनों कंपनियों के सैकड़ों प्रोडक्ट हैं जो असमंजस की स्थिति को जन्म देते हैं।
देश की एप्पल इंडस्ट्री के लिए समय पूर्व पतझड़ नई महामारी बन चुका है। इसे गंभीरता से इसलिए लिया जाना चाहिए, क्योंकि यह अगली फसल को भी चौपट कर सकता है और पूरे बागीचे को भी। इसके नियंत्रण के लिए वैसे तो अब तक कोई खास दवा नहीं है, लेकिन निश्चित अंतराल के बाद कुछ असरकारक दवाओं के छिडक़ाव से इसे रोका जा सकता है। अब ये असरकारक दवाएं कौन सी हैं, बागवान इसे लेकर भी भ्रम में हैं। क्या विदेशी कंपनियों के 800 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा में मिलने वाले प्रोडक्ट या फिर साधारण फफूंदनाशक? हम यह नहीं कह सकते कि महंगे उत्पाद किसी काम के नहीं, लेकिन यह भी तो नहीं कहा जा सकता कि इनके एक- आध स्प्रे से ही पत्तियां फ्रेश बनी रहेगी। लेकिन बागवान विदेशी कंपनियों के ऐसे ही बहकावे में आकार फसल सुरक्षा चक्र को कमजोर बना रहे हैं। पत्तियों को जल्द गिराने वाले फफूंदों का सफाया साधारण दवाओं के छिडक़ाव के एक पूरे शैड्यूल से ही किया जा सकता है। वैज्ञानिक भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। तो फिर महंगे उत्पाद क्यों? यह समझ से परे है।
ऐसे कई साक्ष्य मिले हैं कि बागवानों ने महंगे उत्पाद छिडक़कर उत्पादन लागत को भी बढ़ाया और पत्तियां भी सुरक्षित नहीं रह पाई। माइट, पाउडरी मिल्ड्यू और रस्टिंग जैसी समस्याओं को लेकर भी कुछ ऐसा ही हुआ। माइट के नियंत्रण के लिए जो स्प्रे मई के अंत में होनी चाहिए थी, वह कुछ दवा कंपनियों के नुमाइंदों से अपने टारगेट पूरा करने के लिए अप्रैल में ही करवा दी। ऐसी कंपनियों का प्रोडक्ट बेचने का एक और हथकंडा यह है कि वह कुछ बड़े नामी बागवानों- किसानों का उदाहरण देकर आम लोगों को फांसते हैं। इसलिए किसानों- बागवानों को यह समझने की जरूरत है कि फसल को सुरक्षित रखने के लिए फिलहाल कोई जादुई दवा नहीं है।
विभिन्न कीटों और फफूंदों के पनपने के समय अलग-अलग हैं, जो साधारण दवाओं से नियंत्रित किए जा सकते हैं। बशर्ते छिडक़ाव सही समय पर हो और यह भी जरूरी है कि छिडक़ाव बीमारी की संभावना पर ही किए जाएं। कंपनियों के विज्ञापन, ब्रांड और दावे अपनी जगह हैं। इसलिए किसान-बागवान सुनें सबकी, इस्तेमाल वही करें जो सही है, आपके बजट के भीतर है और वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है।
रसायनों के अत्याधिक प्रयोग से विभिन्न फसलों का उत्पादन कम हो रहा है, जिससे आने वाले वर्षों में देश में खाद्यान्न संकट पैदा हो सकता है। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2025 तक देश की आबादी को 300 मिलियन टन आनाज की जरूरत होगी, लेकिन यदि मिट्टी का उपजाऊपन ऐसे ही नष्ट होता रहा तो इतना उत्पादन नामुमकिन है। वर्ष 1947 में जब भारत आजाद हुआ, उस समय की जनसंख्या मात्र 37 करोड़ थी। इस जनसंख्या की खाद्यपूर्ति करने के लिए जो अनाज उगाया जाता था, उसमें 55 हजार मीट्रिक टन रसाययिक खादों और दवाओं का इस्तेमाल होता था। अब जनसंख्या 130 करोड़ से ज्यादा है और रसायनों की जरूरत करीब 700 लाख मीट्रिक टन की है। लेकिन रसायनों का ही दुष्प्रभाव है कि वर्ष 2000-01 से वर्ष 2009-10 के बीच चावल का उत्पादन 1.61 प्रतिशत और गेहू का उत्पादन 0.68 फीसदी घटा। इससे फसलों की लागत भी न निकल पाने के चलते किसानों के आत्महत्या करने के मामले बढऩे लगे।
रसायनों और कीटनाशकों के अत्याधिक प्रयोग से भूमि में मौजूद लाभकारी सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं। इससे उनके द्वारा किए जाने वाले प्राकृतिक कार्य नहीं हो पाते। हाल ही में हुए एक शोध में देश के बड़े राज्यों में मिट्टी के करीब एक लाख नमूने एकत्र किए गए और उनकी जांच की गई। 87 प्रतिशत सेंपलों में आर्गेनिक कार्बन की कमी पाई गई। जबकि सिर्फ 13 प्रतिशत सैंपल में संतोषजनक आर्गेनिक कार्बन पाया गया। जाहिर है हमारी फसलें और मिट्टी इस समय जहरीले दुष्च्रक से घिरी है। लेकिन अब फलों, सब्जियों और अनाजों को इस जहरीले दुष्चक्र से छुड़ाने का वक्त आ चुका है।
मौजूदा समय में सेब की फसल के लिए महज एक दर्जन के करीब ही दवाएं पंजीकृत हैं, लेकिन प्रोडक्ट सैकड़ों में बेचे जा रहे हैं। अब तक सरकार की ओर से प्रदेश में कृषि इस्तेमाल की दवाइयों को बेचने पर सख्ती कागजों में ही की गई है। केन्द्रीय कीटनाशक बोर्ड एवं प्रमाणन कमेटी (सीआईबी एंड आरसी) भी इस मामले में अब तक कोई ठोस काम नहीं कर पाई है। किसानों-बागवानों को अपने स्तर पर मिट्टी को इस जहरीले संकट से बाहर निकालना होगा। कृषि से संबद्ध सभी गतिविधियों में इस तरह के प्रयासों को गति दिए जाने की जरूरत है, ताकि मिट्टी और मानव दोनों सुरक्षित रह सकें।