सरकार और उसके समर्थन में आए बन्धुओं ने जिस तरह से लेखकों और
यदि पुरस्कार वापसी का निर्णय उन्होंने लिया तो उसे कोई भी देशद्रोह की संज्ञा कैसे दे सकता है? इस पर जिस तरह की अपमानजनक टिप्पणियां हो रही हैं, क्या उससे देश को ही क्षति नहीं पहुंच रही? जेनुअन लेखन कभी भी किसी राजनीतिक पार्टी का प्रवक्ता नहीं रहा है। वह हमेशा आमजन का प्रवक्ता होता है जो सही को सही और गलत को गलत कहता है। जो लोग आए दिन नेताओं की जीवनियां लिखते रहते हैं, दरबारों में कविताएं सुनाते पढ़ते हैं या सत्तासुख के लिए हर सत्ता के साथ हो लेते हैं, वे कभी भी जेनुअन लेखक नहीं कहलाए गए।
सरकार ने लेखकों और कलाकारों के विरोध पर जैसा रूख दिखाया है, वह मूर्खतापूर्ण तो है ही, उसमें दूरदृष्टि का भी अभाव दिखता है। लेकिन अगर सरकार वैज्ञानिकों के साथ भी ऐसा ही करेगी तो इससे अफसोसनाक और कुछ नहीं हो सकता। अभी भी समय है मोदी जी को अपने देश की मिट्टी पर पैर रखने शुरू कर देने चाहिए, अन्यथा दिल्ली और बिहार तो सामने है ही।