हमें व्यक्तिवाचक कविता लिखने के लिए प्रेरित करने वाले रामदयाल नीरज बीते
बम्बे से लौटकर ताया के साथ दिल्ली में प्रभाकर, बी. ए. की पढ़ाई के साथ दिल्ली
के कवि सम्मेलनों को सुनकर वे कवि नीरज हो गये। नाहन लौटकर मास्टरी की, 1945 में प्रजामंडल आंदोलन में कूद पडे। डा.परमार के सहयोगी रहकर सरकरी सूचना विभाग में आ गये। लगभग दो दशकों तक हिमप्रस्थ पत्रिका के सम्पादक रहे और उपनिदेशक पद से सेवानिवृत्त होने के बाद -द ट्रिब्यून के हिंदी व पंजाबी संस्करणों के सम्वाददाता रहे। साधु, अभिनेता, गायक, अध्यापक, आंदोलनकारी, सम्पादक, कवि, अधिकारी व पत्रकार के सोपानों से गुज़रकर नीरज एक स्वतंत्र लेखक और सांस्कृतिक चिंतक थे। वह जनवादी लेखक संघ के सक्रिय सदस्य भी रहे।
संजौली के श्मशान में उनके अंतिम संस्कार पर उन के बेटे अनिल से हमने यही कहा–नीरज जी ने शानदार अनुभवों का पूरा जीवन जिया !
नीरज कुछ महीनों पहले तक जीन पहनकर मालरोड तक पैदल जाते थे।गोष्ठियो में अच्छे अध्यक्षीय भाषण देते थे और खूब मीठे की चाय पीते थे।
वह लेखकों-कलाकारों में मास्टर जी व गुरुजी कहलाते थे। मगर उनके अंतिम संस्कार में सूचना विभाग के चार अधिकारियो के साथ लेखकों में महज़ डा.सारस्वत शामिल थे। मगर उनके बेटों के मित्र तथा निजी सम्बंधी लगभग साठ लोग उन्हें अंतिम विदाई देने शाम को श्मशान पर जुटे थे। हिमेश के बाद मालरोड की उस पीढी का यह दूसरा शख्स भी विदा ले गया, जिन्होंने आज़ादी के बाद इन पिछड़े पहाड़ों में साहित्य और कला का माहौल बनाया था।
पहाड़ के उस जुझारू बुद्धिजीवी नीरज को सलाम-दर-सलाम…
हुड़क की ताल पर/ नीरज की दाढ़ी में
फड़फड़ाता समय का ज़ख्मी मोनाल
ज़हन में पहाड़ के बनते बिगड़ते रंग
राजे-रानों के शौक /आज़ादी की लड़ाई/गूंजती ढंकारों में
प्रजामंडल विद्रोह की ऊंची आवाज़
नेहरू की यात्राएं, परमार का ज़माना
ज़ख्मों की तरह/कदम कदम खुलते पहाड़
गीतों की लय में खनकती चीत्कार
(‘मालरोड़ पर एक पीढ़ी’ कविता से)