नई दिल्ली। देश में कोरोना के बहाने जिस तरीके से मजदूरों के अधिकारों को निरस्त किया जा रहा है, उससे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सहित सभी मजदूर संगठन उद्वेलित हैं।
उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की सरकारों ने मजदूरों के लगभग सभी अधिकारों को निरस्त कर उन्हें पूरी तरह उद्योगपतियों और कारखाना मालिकों के रहमोकरम पर छोड़ दिया है। अब मजदूरों के साथ मालिक चाहे जैसा मर्जी व्यवहार करे, किसी भी अदालत में उसे चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “ये तो बंधुआ मजदूर जैसा बर्ताव करने से भी ख़राब है। क्या भारत का संविधान अस्तित्व में हैं? क्या देश में कोई क़ानून मौजूद है? भाजपा की सरकार हमें आदिम काल में धकेल रही है। महामारी नाम पर करोड़ों मजदूरों की ज़िंदगियों को जोखिम में डालकर मुनाफ़ाखोरी को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा है। इसका जमकर विरोध होगा। अदालतों में भी और सड़क पर भी।”
उन्होंने मध्य प्रदेश का ज़िक्र करते हुए कहा था कि भोपाल गैस त्रासदी के बाद श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए जो क़ानून बनाए गए थे वो सबके कल्याण के लिए थे। उन्हें भी समाप्त कर दिया गया है।
मज़दूर संगठनों से जुड़े लोगों का कहना है कि औद्योगिक क्रांति से पहले जिन हालात में मज़दूरों को काम करने पर मजबूर होना पड़ता था, देश के कुछ प्रमुख राज्यों में मज़दूरों के लिए कुछ वैसे ही हालात हो जाएंगे।
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने बुधवार को अपने मंत्रिमंडल की बैठक में मजदूरों के अधिकारों को तीन वर्ष तक के लिए निरस्त करने का बड़ा फैसला लिया। सरकार की दलील है कि यह सब ‘प्रदेश में निवेश को बढ़ावा देने के लिए‘ किया जा रहा है।
बदली हुई परिस्थितियों में अब मज़दूरों को 12 घंटे की पाली में काम करना पड़ेगा। हिमाचल प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में भी मज़दूरों को आठ के बजाय 12 घंटों की पाली में काम करना पड़ेगा।
उधर, मध्य प्रदेश सरकार ने तो इससे भी आगे बढ़ते हुए श्रमिक अनुबंध क़ानून को 1000 दिनों के लिए निरस्त करने का फ़ैसला किया है। इसके अलावा ‘औद्योगिक विवाद क़ानून‘ और ‘इंडस्ट्रियल रिलेशंस एक्ट‘ को भी निरस्त कर दिया है।
मध्य प्रदेश ने जो फ़ैसला लिया है वो मौजूदा औद्योगिक इकाइयों और नई खुलने वाली इकाइयों के लिए भी है। वहां मज़दूरों के काम की जगह को ठीक हालत में रखना अब मालिक की मर्जी पर निर्भर करेगा। मजदूरों को कुछ बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने कानूनी बाध्यता भी समाप्त कर दी गई है। राज्य सरकारों ने उद्योगपतियों को उन ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है, जो अब तक क़ानूनन उन्हें माननी पड़ती थीं।
मध्य प्रदेश ने वर्ष 1982 में भोपाल गैस त्रासदी के बाद एक श्रमिक कल्याण कोष की स्थापना की थी जिसके तहत हर साल कंपनियों को प्रत्येक मज़दूर के हिसाब से 80 रुपये जमा करने अनिवार्य थे।
अब इस व्यवस्था को भी समाप्त करने का फैसला लिया गया है।
मजदूरों के कौन से अधिकार निरस्त हुए?
-काम की जगह या फैक्ट्री में गंदगी पर कार्रवाई से राहत।
-वेंटिलेशन या हवादार इलाक़े में काम करने की जगह नहीं होने पर कोई कार्रवाई नहीं होगी।
-किसी मजदूर की अगर काम की वजह से तबीयत ख़राब होती है तो फैक्ट्री के मैनेजर को संबंधित अधिकारियों को सूचित नहीं करना होगा।
-शौचालयों की व्यवस्था नहीं होने पर भी कोई कार्रवाई नहीं होगी।।
इकाइयां अपनी सुविधा के हिसाब से मज़दूरों को रख सकती हैं और निकाल सकती हैं वो भी अपनी ही शर्तों पर।
बदहाली में काम करने का न तो श्रमिक अदालत संज्ञान लेगी और ना ही दूसरी अदालत में इसको चुनौती दी जा सकती है।
-इसके अलावा श्रमिकों के लिए रहने और आराम करने की व्यवस्था या महिला श्रमिकों के लिए बच्चों की देखभाल के लिए क्रेच भी बनाना नई कंपनियों के लिए अनिवार्य नहीं होगा। और न ही इन इकाइयों का कोई सरकारी सर्वेक्षण ही किया जाएगा।
सरकारों के इन घातक फैसलों पर श्रमिक संगठन आगबबूला हैं। उनका कहना है कि इससे एक बार फिर औद्योगिक क्रांति से पहले जैसे हालात पैदा हो जाएंगे। श्रमिकों को बंधुआ मजदूरी की तरफ धकेला जा रहा है।
भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के सचिव राजीव अरोड़ा ने कहा कि सरकारों ने महामारी का सहारा लेते हुए ‘श्रम क़ानून‘ को मालिकों के पास गिरवी रख दिया है। जल्द ही सभी ट्रेड यूनियनें इन फ़ैसलों को अदालत में चुनौती देंगी।