हिंदुस्तान को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करोगे तो कश्मीर में सेक्युलर राज्य की कल्पना बेमानी है। वास्तव में वर्ष 1947 में विभाजन के समय सरदार पटेल जम्मू- कश्मीर पाकिस्तान को देने के लिए सहमत थे। राजा हरिसिंह उस समय बस अपनी संप्रभुता बचाना चाहते थे और लगातार पाकिस्तान के संपर्क में थे। सरदार पटेल का तर्क स्पष्ट था कि मुस्लिम बहुल इलाका पाकिस्तान को मिले, लेकिन नेहरू और शेख साहब चाहते थे कि यह हिंदुस्तान में रहे। नेहरू सिद्ध करना चाहते थे कि भारत एक लोकतांत्रिक और सेक्युलर देश है, एक मुस्लिम बहुल इलाके का इसमें सम्मान से होना हमारे लोकतांत्रिक स्वरूप को एक नई ऊंचाई दे सकता था। इसलिए संप्रभुता राजा को नहीं दी गई, बल्कि धारा 370 के माध्यम से स्वायत्ता जनता को दी गई।
लेकिन आपने कश्मीरियों की स्वायत्ता का लगातार अपमान किया तो उनसे किसी राष्ट्रभक्ति की उम्मीद कैसे करते? शेख साहब की गिरफ्तारी से लेकर श्रीनगर की चाभी दिल्ली में रखने की तमाम कोशिशों के बाद आपने वहां लोकतांत्रिक प्रतिरोध के सारे स्पेस खत्म कर दिए। चुनावों को मजाक बना दिया।
बलराज पुरी एकदम सही लिखते हैं कि अगर वहां अलग- अलग डेमोक्रेटिक स्पेस अपनाने दिए जाते तो यह हाल नहीं होता। बाकी राज्यों की तरह लोग अपना गुस्सा चुनाव में निकाल पाते। बचा खुचा काम सेना को भेज कर कर दिया। दुश्मनों से लड़ने को ट्रेंड सेना ने कश्मीरियों के साथ वैसे ही ट्रीट किया और वे बन ही गए दुश्मन। ऐसे में पाकिस्तान को तो फायदा उठाना ही था। घर के बच्चे की हर गलती का जवाब थप्पड़ से देंगे तो वह भी विद्रोही हो जाएगा। यहां तो एक खुद्दार कौम थी। हालात ऐसे बने कि सदियों से साथ रही कौमें आपस में दुश्मन हो गईं।
कश्मीरी पंडितों ने चुना हिंदू महासभा का रास्ता। उसका सहारा मेनलैंड हिंदुस्तान के हिंदू बहुसंख्यक थे। परिणामस्वरूप वह भयानक हादसा हुआ, जिसने घाटी की डैमोग्राफी ही बदल दी। जम्मू में मुस्लमानों का कत्लेआम उसे हिंदू बहुल बना चुका था तो घाटी से पंडितों के पलायन (एक्सोडस) ने उसे पूरी तरह इस्लामिक स्पेस बना दिया।
हां, है वह आंदोलन अब धार्मिक। मत भूलिए धर्म पीड़ित मानवता की आह है। कहां बचा है किसी प्रगतिशील आंदोलन के लिए स्पेस वहां? जब कोई सहारा न बचा तो धर्म सहारा बना। बंदूक और धर्म की जोड़ी वैसे ही सहज होती है। उत्पीड़नों ने वहां यासीन मलिक तो पैदा किए पर दो देशों ने मिल कर जिसे नेता बनाया वह गिलानी था मलिक नहीं। ऐसे में आजादी की मांग को हरे झंडे पर आना ही था।
नहीं जानता कल क्या होगा? इधर या उधर सब जगह अंधेरा दिखता है। पाकिस्तान जीते या भारत, हारेगा कश्मीर ही। मुझे अफगानों का आना याद आता है वहां। चक सुल्तानों से थकी प्रजा ने अफगानों को बुलाया अपने यहां शासन करने। अफगानों के अत्याचार से ऐसी त्रहिमाम मची कि चक बेहतर लगने लगे। फिर मुगल, सिख, डोगरा। शांति और समृद्धि जैसे मृगतृष्णा बन गई कश्मीर के लिए।
दे लीजिए गालियां, कह लीजिए उन्हें फैनाटिक और देशद्रोही, पाकिस्तान परस्त भी। और भी जो चाहे। पर गालियां बरसा के हल कुछ नहीं होने वाला। हल तो गोलियों से भी क्या हो रहा है? और हां, हिंदुस्तान में हिंदू राष्ट्र बनाएंगे तो कश्मीर में किसी सेक्युलर राज्य की कल्पना नहीं कर सकते।