देश में बेरोजगारी में भी ग्रामीण महिलाओं की बेरोजगारी नोटबन्दी के बाद से ही बहुत बड़ा विषय है, लेकिन वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण इसे मानती ही नहीं। यह एक आपराधिक मूर्खता है। बजट में इस महत्वपूर्ण विषय को नजरंदाज कर दिया गया।
मनरेगा विश्व का सबसे बड़ा ‘संवैधानिक ग्रामीण रोजगार प्रोग्राम’ है। इसकी कानूनी और संवैधानिक मान्यता है। मनरेगा ‘डिमांड पर आधारित’ ग्रामीण रोजगार योजना है। यानी मनरेगा में जितनी डिमांड आएगी, सरकार उसे पूरा करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है।
वित्तमंत्री ने मनरेगा में केवल 73,000 करोड़ का प्रावधान किया है। इन पैसों से ही पिछले साल का बकाया 12,364 करोड़ चुकाना है। यानी असलियत में प्रावधान केवल 60,000 करोड़ ही है। अगर 9.94 करोड़ मनरेगा कार्ड होल्डर को काम देना पड़े तो साल में बमुश्किल 20 दिनों का काम दिया जा सकता है। इससे बड़ा पाप और कुछ नहीं हो सकता।
इस वक्त जब देश में उत्पादों की डिमांड नहीं है। ऐसे में सरकार को चाहिए था कि मनरेगा में 100 दिनों को बढ़ा कर 150 दिनों का रोजगार कर देती। इससे जो डिमांड पैदा होती उससे देश में प्राइवेट सेक्टर का इन्वेस्टमेंट Revive हो जाता।
मैं एक बात लिखता हूं- “इकोनॉमिक्स इज नॉट फ़ॉर स्काउंड्रेल्स”..भारत की इकॉनमी को विश्व के सर्वश्रेष्ठ स्काउंड्रेल्स भी इतना खत्म नहीं कर सकते थे। बुरा मत मानिए, निर्मला सीतारमण को ‘स्काउंड्रेल’ कहने की हिमाकत मैं नहीं कर सकत। कृष्णन अय्यर की वॉल से साभार