हिमाचल प्रदेश में मंदिरों का निर्माण अपने आप में ही एक अनूठा अनुष्ठान है। इसमें धार्मिक आस्था, निष्ठा और प्राचीन संस्कृति का समावेश तो है ही, साथ ही समृद्ध कला के दर्शन भी इसमें होते हैं। ज्यादातर मंदिरों का निर्माण स्थानीय श्रद्धालुओं के सामुहिक श्रम एवं आर्थिक सहयोग से ही होता है।
लेखक, शेरजंग चौहान, सामाजिक, राजनीतिक मामलों के टिप्पणीकार हैं।
शुभ मुहूर्त में समयबद्ध कार्य किया जाता है, जिसमें कुशल कारीगरों के लिए भी विशेष स्थापित नियम होते हैं। हम पाठकों को यहां राजगढ़ क्षेत्र में बन रहे शिरगुल महाराज के मंदिर के पुनर्निर्माण की कुछ झलक दिखाएंगे। यह मंदिर वर्ष 2013 में आग की भेंट चढ़ गया था।
यहां शिरगुल महाराज के मंदिर की नौ पौड़ियां और चाकला बनाने के बाद मुख्यद्वार (पौल) को विधिपूर्वक स्थापित किया जा रहा है। इसके बाद पौल का पूजन किया जाएगा।
यहां मुख्यद्वार (पौल) की स्थापना के बाद उसका विधिवत् पूजन किया जा रहा है। पौल के आगे एक कलश को दबाया जा रहा है। इसमें विभिन्न तीर्थ स्थलों से लाई गई मिट्टी, गंगाजल, दूध, गोमूत्र, जौ, तिल, सरसों, पंचरत्न इत्यादि को डाला गया है। देवप्रथा अनुसार पौल, मावी (ठाणा-धार-भुईरा) की होती है। इनके बिना पौल का निर्माण नहीं हो सकता। उसी प्रकार श्वाईक के बिना इस कार्य को अन्य मिस्त्री नहीं कर सकते।
यहां शिरगुल देवता के मन्दिर का प्रथम चरण- चाकला, पौल और नगारखाना का काम पूर्ण हो गया है। श्रद्धालुओं ने 72 दिन लगातार जुट कर यह कार्य संपन्न किया। इसके बाद पौल और मंदिर पर कुरुड़ लगाने का प्रमुख कार्य होना है। अलग- अलग क्षेत्रों में ‘कुरुड़’ लगाने के समय अनेक प्रथाएं प्रचलित हैं। कई स्थानों पर ‘कुरुड़’ के समय बकरे भी काटे जाते हैं तो कुछ जगह नारियल काट कर ही काम चला लिया जाता है।