मैं उन दिनों शिमला और देहरादून से एक साथ प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक हिमालय टाइम्स के लिए
इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर उतरकर मुझे हिन्दी साहित्य सम्मेलन तक जाने में कोई विशेष दुविधा नहीं हुई। धर्मशाला के बड़े-बड़े कक्षों में भूमि-शयन की व्यवस्था आयोजकों की ओर से की गई थी। मैंने भी अपने लिए स्थान चुन लिया और नहा-धोकर सभागार में जा पहुँची। आयोजन प्रयाग महिला विद्यापीठ के महादेवी वर्मा सभागार में हो रहा था।
आलेख के लिए विषय मिला था ‘आठवें दशक का महिला लेखन।’ इससे पूर्व मैंने बस एक आलेख
लिखा था आकाशवाणी के लिए। यह आलेख मेरे लिए टेढ़ी खीर था, परन्तु बड़े परिश्रम से मैंने यह आलेख तैयार किया था और मुशायरों के अतिरिक्त किसी बड़े समारोह में सहभागिता करने का भी यह मेरा प्रथम अवसर ही था। बहुत भय लगा हुआ था, पता नहीं, कहीं स्कूल की पहली कविता वाला हाल तो नहीं होगा? जी कड़ा करके सभागार में बैठी हुई थी। बहुत-सी विदुषि लेखिकाएं एवं विद्वान लेखक भी अपने-अपने आलेख वाचन से सभा को प्रभावित कर रहे थे। मैं सोच रही थी कि सब लोग एक ही तरह की बात कर रहे हैं तो मैं क्या पढ़ूंगी। तभी एक नाटी-सी महिला मेरे पास आकर बोलीं, ‘‘तुम कविता पढ़ोगी क्या?’’ बाद में पता चला कि ये गाजि़याबाद की डॉ. मधु भारतीय थीं।
‘‘जी, यदि कविता पाठ के लिए कहा गया तो जरूर पढ़ूंगी।’’ वे मेरा नाम लिखकर ले गईं। अन्य महिलाओं के नाम भी वे लिख रही थीं। दोपहर के सत्र के पश्चात् सब लोगों का आपस में परिचय करने का अवसर आया। मालुम हुआ कि भारत के प्रत्येक कोने से लगभग 200 महिलाएं इस आयोजन में भाग लेने आई हुई थीं। मेरे लिए यह एक नया अनुभव था। मैं चुपचाप सब कुछ समझने की चेष्ठा कर रही थी।
रात्रि भोजन के पश्चात् पुनः सब लोग सभागार में एकत्र हुए। इस सत्र में कविता पाठ होना था। अचानक मंच की ओर से कुछ शोर सुनाई दिया तो सब उधर ही देखने लगे। वहां कुछ महिलाएं जोर-जोर से बोल रही थीं परन्तु सब के एक-साथ बोलने के कारण समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि विवाद का विषय क्या है। तभी क्रीम रंग के कुर्ते और सफेद धोती में एक वृहदकाय आकृति मंच पर प्रकट हुई। ज्ञात हुआ कि आयोजन के कर्ता-धर्ता यही श्री श्रीधर शास्त्री महोदय हैं।
श्रीधर शास्त्री जी ने डॉ. मधु भारतीय के हाथ से माइक ले लिया और कहने लगे, ‘‘देखिए, जिन कवयित्रियों को मैंने नहीं पढ़ा या सुना है, उन्हें मैं मंच बिल्कुल नहीं दूंगा। कृपया आप बेमतलब का हठ न करें।’’ माइक शास्त्री जी के हाथ में होने के कारण आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। तभी भीड़ में से किसी महिला ने कह दिया, ‘‘अब तो हम आ गई हैं, कविता तो पढ़ेंगी ही।’’ सम्भवतया वह महिला शास्त्री जी के निकट ही खड़ी थीं, अतः स्वर मुखरित था। तुरन्त ही श्रीधर शास्त्री जी का उत्तर आया, ‘‘आ गई हैं तो चली जाइए। पर मैं मंच नहीं दूंगा।’’
मैं सभागार के अंतिम सिरे पर बैठी, आयोजन में भागीदारी कर रहे कुछ अन्य रचनाधर्मियों से परिचय बढ़ाने में लगी रही। मेरे पास फूलपुर के डॉ. उमाशंकर शुक्ल ‘उमेश’ और चंपारण के पाण्डे आशुतोश बैठे थे। तभी राजकुमारी रश्मि और अनुपमा भदौरिया मेरे पास आईं। उनका तमतमाया चेहरा देखकर मुझे आभास हुआ कि सम्भवतया विवाद इन्हीं के साथ हुआ है। कुछ और महिलाएं भी उनके साथ ही आ गईं। वे सब मारे क्रोध के उफन रही थीं। सहसा ही अनुपमा भदौरिया मेरी ओर मुड़ी, ‘‘तुम कुछ बोल क्यों नहीं रही हो? क्या तुम्हें बुरा नहीं लगा शास्त्री जी का यह व्यवहार?’’
‘‘लगा तो बुरा ही है, परन्तु मेरा अधिकार नहीं बनता बोलने का।’’
‘‘क्यों? क्या तुम नहीं चाहती यहां पर कविता पढ़ना?’’
‘‘चाहती तो हूं, परन्तु मैं तो यहां पहली बार आई हूं, यहां के नियम भी नहीं जानती। मैं बोल भी कैसे सकती हूं कुछ?’’
‘‘क्यों नहीं बोल सकतीं, यह इसी प्रकार असभ्यता करते रहेंगे और हम बोलेंगे भी नहीं? कविता पाठ के लिए नाम तो तुमने भी दिया है न, और ये तुम्हें कविता पढ़ने नहीं देंगे। तुम्हें भी आपत्ति करनी चाहिए। देखा नहीं कैसे अपमानित कर रहे हैं, लेखिकाओं को? अरे, ये हमेशा ऐसा ही करते हैं।’’
‘‘देखिए अनुपमा जी, मुझे तो आलेख पढ़ने के लिए बुलाया गया है। अब डॉ. मधु भारतीय ने मुझसे कविता पढ़ने के लिए पूछा तो मैंने हां कर दी। वास्तव में मुझे यहां का कुछ भी पता नहीं। हां! यदि मुझे आलेख पढ़ने नहीं दिया गया तो मैं अवश्य आपत्ति उठाऊंगी, परन्तु कविता के विषय पर नहीं।’’
‘‘इसका अर्थ यह हुआ कि तुम हमारे साथ नहीं हो। हमने तो सोचा था, तुम पत्रकार हो, तुम्हें नारी का यह अपमान उद्वेलित करेगा। परन्तु तुम ने तो एकदम पीठ दिखा दी।’’
‘‘नहीं, आप गलत समझी हैं, मैं अपना पत्रकारिता का कर्तव्य अवश्य निभाऊंगी, परन्तु यहां मेरा बोलना अनुचित होगा। मुझे तो यह भी मालूम नहीं कि विवाद हुआ किस बात पर है। ऐसे में मेरा बोलना सर्वथा अनुचित होगा।’’ बाद में मुझे पता चला कि कविता पढ़ने वाली महिलाओं की संख्या 70 हो गई थी। इतनी महिलाओं को कविता पाठ के लिए दो दिन चाहिए थे। हालांकि तीन दिन का कार्यक्रम था।
दूसरे दिन, आलेख पाठ हो रहा था, तभी एक लम्बी-छरहरी देह वाली सांवले से रंग की महिला मेरे पास आकर बोली, ‘‘आप निर्मला सिंह हैं क्या?’’
‘‘नहीं, मेरा नाम आशा शैली है।’’ वह मेरे पास ही खाली कुर्सी लेकर बैठ गई और कहने लगी, ‘‘मेरा नाम यास्मीन सुल्ताना नक़वी है। कल यहां क्या हुआ था?’’ मैंने उसे पूरी घटना विस्तार से बताई तो वह कहने लगी, ‘‘लगता है आप पहली बार आई हैं।’’
‘‘जी हां। परन्तु क्या यहां ऐसा ही होता है?’’
‘‘अरे, ये तो इसी तरह बद्तहज़ीब आदमी हैं। आप रुकेंगी क्या?’’
‘‘हाँ! अभी तो मुझे अपना आलेख पढ़ना है। मेरी कल की गाड़ी है, कल तक रुकना तो पड़ेगा ही।’’
‘‘ठीक है, अगर कार्यक्रम समय पर समाप्त हो जाए तो आप मेरे घर आ जाइए। हमारे यहां भी आज एक गोष्ठी है, वहां आपको कुछ अच्छे लोगों से मिलने का मौका मिलेगा।’’ और वह अपना पता और फोन नंबर देकर चली गई। थोड़ी ही देर बाद मेरा नाम पुकारा गया। साथ ही शास्त्री जी ने यह भी कहा कि ‘हिमालय से गंगा तो युगों पूर्व इलाहाबाद में आई थी परन्तु इस बार एक और हिमालय पुत्री का इलाहाबाद में पदार्पण हुआ है, देखें ये इस धरती के लिए क्या लाई हैं।
अब तक घटी घटना का मेरे मन पर प्रभाव शेष था, खिन्नता भी थी और अब तक पढ़े गए आलेखों के बाद मुझे नहीं लगा कि मेरे पास कुछ कहने को है, क्योंकि आठवें दशक के महिला लेखन विषय पर इतना बोला जा चुका था कि जो भी बोला जाता, मात्र दुहराव ही होता। अतः मैंने अपनी बात ही यहां से प्रारम्भ की, ‘‘पूरे भारत की रचनाधर्मी महिलाओं के विषय में बहुत कुछ कहा गया है परन्तु हिमाचली महिला के लेखन पर बात नहीं हुई, इसलिए मैं मात्र हिमाचली महिला लेखन की बात करूंगी।’’ इसके पश्चात् मैंने मात्र हिमाचल के महिला लेखन की बात करके संक्षिप्त में अपना आलेख समाप्त किया और समय रहते डॉ. यास्मीन सुल्ताना नक़वी के घर जा पहुंची। यास्मीन मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। फिर वह मुझे अपने साथ किसी अन्य स्थान पर ले गई जहां बहुत अच्छी गोष्ठी हुई। दूसरे दिन अपनी गाड़ी के समय तक मैं यास्मीन के घर ही रही। अब घर के शेष लोगों से भी मेरा परिचय हुआ। एक ही दिन के साथ में डॉ. यास्मीन सुल्ताना नक़वी ने मुझे बाजी कहना शुरू कर दिया। फिर वह मुझे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर, प्रयागराज में बैठाकर गाड़ी चलने तक वहीं खड़ी रही।
वापस शिमला लौटकर मैंने जम कर इस घटना के विषय में लिखा और शीर्षक दिया, ‘महादेवी के आंगन में लेखिकाएं अपमानित’ जो इलाहाबाद के समाचार पत्रों में भी प्रकाशित हुआ। इस कारण शास्त्री जी ने बरसों मुझे निमन्त्रण नहीं भेजा जो स्वाभाविक था।