इन दिनों पता नहीं क्यों मुझे बार-बार पीछे मुड़कर झांकने की बीमारी सी हो गई
…खूबसूरत पर्यटन स्थल शिमला की सीढ़ियों का रंग रूप बदला जा रहा है। कुछ लोग कहते हैं, “बेड़ा गर्क..अच्छी भली लाल रंग की सीढ़ियां अभी ही तो बनी थीं। बिना वजह फिर से तोड़ दीं, नई बनीं तो बिल्कुल भद्दी…।”
थोड़ी पूछताछ की तो पता चला कि शिमला के सौंदर्यीकरण के लिए किसी योजना के तहत 200 करोड़ रुपये का बजट मिला है। उसे लैप्स कैसे होने दिया जा सकता है? ठेकेदारों को भी तो कुछ रोजगार देना पड़ेगा कि नहीं ? इसीलिए…।
…पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि शिमला शहर का ‘विकास’ कुछ इसी तरह होता आया है। लाल, हरी टोपियों वाली सरकारें आती- जाती रहीं। सपने बेचने में एक से बढ़कर एक। कभी किसी ने पर्यावरण की फिक्र करते हुए घोषणा की कि अब यहां सड़कें नहीं, रज्जू मार्ग बनाए जाएंगे। इसके लिए तुरंत धुआंधार सर्वेक्षण शुरू हो गए। लोगों को लगा कि अब तो मजे से हवा में उड़ते हुए ही एक छोर से दूसरे छोर तक जाया आया करेंगे। शहर में पर्यटन को सातवें आसमान पर पहुंचाने के सपने दिखाए जाने लगे। सरकारी घोषणाओं से अखबार रंगते चले गए। कुछ उत्साही नेताओं ने शहर में जगह -जगह लिफ्ट स्थापित करने भी तान छेड़ी।… बातों ही बातों में इसी तरह समय बीतता गया और अंततः योजनाएं हवा हवाई हो गईं।
फिर कुछ नए लोग सत्ता में आए। उन्हें हवाई मार्ग से सख्त ऐतराज था। उन्होंने शहर को नया नारा दिया- ‘शिमला को हर ओर भूमिगत सुरंगों से जोड़ा जाएगा।’ इसके लिए बजट उपलब्ध होने की भी बात कही गई। बताया गया कि शहर के नीचे भूमिगत पांच सुरंगें बनाई जाएंगी। नए नारे ने शहरवासियों के सपनों को फिर से तरोताजा कर दिया। अब हवा से नहीं तो ना सही, सुरंगों से ही टहलते हुए मिनटों में कहीं भी पहुंच जाने का लुत्फ उठाएंगे। आगे फिर वही खेल, सुरंगों के चित्रांकन से वर्षों अखबार रंगते रहे। सर्वेक्षणों पर लाखों खर्च होने की भी चर्चाएं हुईं। सरकार ने ठाठ से अपना कार्यकाल पूरा किया और फिर अपनी योजनाओं के साथ वह भी चलती बनी।
हर नई आती सरकार के नए सब्जबाग। शहर में एस्कलेटर और ट्रॉम चलाने के भी सपने दिखाए गए। गोल्फ कार्ट चलाने की बात तो बिल्कुल ही ताजा है। इसके तो सफल ट्रायल भी हुए, जिसमें हमारे कुछ पत्रकार बंधुओं को भी गोल्फ कार्ट की सवारी का मौका मिला। अखबारों में अच्छी खासी कवरेज हुई। पिछले एक वर्ष से इसके संचालन की बार- बार तिथियां तय होती रहीं और आगे बढ़ती रहीं। नए वर्ष में घोषणा हुई कि अप्रैल माह में सचमुच ही शहर में गोल्फ कार्ट्स चलने शुरू हो जाएंगे। लेकिन अप्रैल भी आया और बीत गया। अब तो नवंबर भी आ गया, लेकिन गोल्फ कार्ट का कोई पता नहीं। इस बीच सरकारी तंत्र ने भी इसकी चर्चा करनी छोड़ दी है। इस तरह शिमला शहर आज भी शिमला ही बना हुआ है, स्विटजरलैंड नहीं बन गया। यहां एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचने में आज भी उतना ही समय लगता है, जितना 40 वर्ष पूर्व लगता था। या शायद उससे भी ज्यादा। शहर की एक तिहाई आबादी आज भी सीवरेज युक्त पानी पीने के लिए मजबूर है। वहां हर वर्ष बरसात के मौसम में पीलिया, डेंगू , उल्टी-दस्त का प्रकोप रहता है।
हो सकता है कुछ लोग मेरे इस विश्लेषण पर नाक-भौं सिकोड़ने लगें और अभी तक शहर पर खर्च हुए करोड़ों- अरबों रुपये का हिसाब लेकर बैठ जाएं। उनसे मैं क्षमा चाहूंगा। महोदय, मैं ये कहां कह रहा हूं कि सरकारों ने खर्चा नहीं किया। खूब खर्चा किया और किया जा रहा है। हम सभी देख तो रहे हैं कि बिना वजह बार-बार सीढ़ियां तोड़ी- बनाई जा रही हैं, सड़क किनारे की रेलिंग्स बार- बार उखाड़ी- लगाई जा रही हैं। केबल्स या पाइप लाइनें बिछाने के लिए सड़कें खुदती रहती हैं और फिर बनती जाती हैं। डंगे लगते रहते हैं, गिरते रहते हैं, फिर फिर बनते रहते हैं। ठेकेदार खूब फल फूल रहे हैं। हर राजनीतिक दल की अपनी- अपनी ठेकेदार लॉबियां…।
अरे! क्या कहते हो..? मैं सिर्फ शिमला शहर की चरचा लेकर बैठ गया हूं? अजी नहीं, ऐसा नहीं है। शिमला तो एक उदाहरण है। वास्तव में पूरे हिमाचल में यही सब तो हो रहा है। किसी भी शहर या कस्बे को पकड़ो और पता कर लो। गांवों की तो बात ही छोड़िए।