शिमला। हिमाचल प्रदेश में कुछ अव्यवहारिक फैसलों के कारण उच्च न्यायालय और राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी)
प्रदेश में गरीब किसानों की साथ लगती सरकारी भूमि पर निर्भरता किसी से भी छिपी नहीं है। यहां 80% किसान सीमांत किसान की श्रेणी में हैं, जिन के पास एक एकड़ से भी कम भूमि है। बहुत से किसान परिवार भूमिहीन या एक बीघा व इस से भी कम भूमि के मालिक रह गए हैं। इसी कारण वर्ष 2002 में तत्कालीन सरकार ने किसानों के सीमित मात्रा में अवैध कब्जे नियमित करने का फैसला लिया था और इसके लिए किसानों से बाकायदा आवेदन मांगे गए थे। यह बात अलग है कि बाद में सरकार ने अपने फैसले को लागू नहीं किया।
हिमाचल प्रदेश किसान सभा और सीपीआईएम किसानों के अवैध कब्जे हटाए जाने के विरोध में जगह-जगह धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। सीपीआईएम के पूर्व राज्य सचिव राकेश सिंघा कहते हैं, “प्रदेश में सरकारें जब पूंजीपतियों को भूमि लीज पर दे सकती है तो किसानों को उनकी अवैध कब्जे वाली भूमि लीज पर क्यों नहीं दी जा सकती?”
माकपा के राज्य सचिव डा. ओंकार शाद का कहना है, “वीरभद्र सरकार यदि किसानों की हितैषी होती तो हाईकोर्ट में हल्फनामा देकर किसानों के पक्ष में कोई संशोधन की बात करती। किसानों को अपने हक की लड़ाई के लिए एकजुट होना ही होगा अन्यथा पूंजीवादी ताकतें उन्हें भिखारी बनाकर छोड़ेंगी ।”
हजारों लघु पर्यटन उद्यमी हुए बेरोजगारः कुल्लू जिला के मनाली में हजारों लोग हर वर्ष ग्रीष्मकालीन पर्यटन सीजन की बेसब्री से राह ताकते हैं। वे मनाली से लेकर रोहतांग व सोलंगनाला आदि में पर्यटकों को सुविधाएं जुटाने के छोटे मोटे काम कर आजीविका चलाते हैं। इन्हें वर्ष में मुश्किल से तीन माह रोजगार मिलता है। राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पर्यावरण संरक्षण के नाम पर एक झटके में इन सबको बेरोजगार कर दिया। हिमालय नीति अभियान के राष्ट्रीय संयोजक गुमान सिंह कहते हैं, “एनजीटी का फैसला न्यायसंगत नहीं है और आशंका है कि यह कारपोरेट सेक्टर को फायदा पहुंचाने के लिए किया गया है।” अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पर्यावरणविद कुलभूषण उपमन्यु ने एनजीटी के फैसले पर टिप्पणी करते हुए दो टूक कहा, “लोगों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करने का किसी भी अदालत को अधिकार नहीं है।”
जनता में आलोचना इसलिए भी अधिक हो रही है कि अदालतों ने अपने इन दोनों ही फैसलों में कोई बीच का रास्ता निकालने की कोशिश तक नहीं की, जबकि बड़े बिजली और सीमेंट प्रोजेक्टों में मनमाने ढंग से हुए पर्यावरण के विनाश पर इस तरह की त्वरित कार्रवाई कभी देखने को नहीं मिली।