देहरादून। उत्तराखंड की सियासत ज्यादातर गर्म रहती है और इन दिनों भी हैं। लेकिन दुर्भाग्य,यह सियासी गरमाहट कभी भी राज्य
ताजा घटनाक्रम में सत्तारूढ़ कांग्रेस के 16 विधायकों ने प्रदेश प्रभारी अंबिका सोनी को पत्र थमाकर राज्य में प्रोगेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट(पीडीएफ) के साथ गठबंधन पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार इतनी अधिक संख्या में विधायक गठबंधन सहयोगी पीडीएफ के खिलाफ खुलकर सामने आए हैं। इनमें बड़ी संख्या बहुगुणा खेमे के विधायकों की है। मगर सियासी जानकारों की मानें तो पीडीएफ की खिलाफत तो बस बहाना है। दरअसल, ये सारी सियासत कुर्सी की है। विद्रोहियों ने गत दिवस सही मौका भांप कर इसीलिए पत्र बम फोड़ डाला। मौका और दस्तूर इसलिए क्योंकि कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी पार्टी की लगातार हो रही दुर्दशा से चिंतित हैं और चिंतन शिविरों के जरिए उसकी मजबूती के प्रयास में जुटे हैं। इसी कड़ी में देहरादून में भी कांग्रेसी मंथन को जुटे हैं। दिल्ली से अंबिका सोनी पहुंची हैं। लिहाजा गठबंधन विरोधियों के पास ये जताने का पूरा मौका है कि जब कांग्रेस संख्या बल में पूरी तरह से मजबूत होगी और उसके बाद वह पीडीएफ को ढोएगी तो पार्टी कैसे मजबूत होगी? मगर सियासी जानकारों की मानें तो विरोधियों के मंसूबे पीडीएफ को ठिकाने लगाने से ज्यादा अपने मंसूबों को अंजाम देने के हैं। जिन असहज हालातों में विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी, उसे वे शायद ही कभी भूले होंगे। अगले ढाई साल के दौरान वापसी करने का उन्हें कभी जरा सा भी चांस मिला तो वे इसे शायद ही गंवाएंगे। कुछ ऐसी ही इच्छा उन विधायकों की है, जिनकी आंखों में पीडीएफ के मंत्री किरकिरी बने हैं। उन्हें मालूम हैं कि जब पीडीएफ के मंत्री रहेंगे तब तक उनका नंबर नहीं लगेगा। इनमें कुछ पूर्व मंत्री भी शामिल हैं।
यानी सबकी निगाहें कुर्सी पर अटकी हैं और ये सब कुछ राज्य के लोगों के लिए कोई नया नहीं है। राज्य गठन से लेकर आज तक वे कुर्सी की सियासत ही देखते आए हैं। सरकार भाजपा की रही या कांग्रेस की, सीएम हटाने और बनाने का खेल राज्य गठन के बाद से ही शुरू हो गया था। कोश्यारी ने नित्यानंद स्वामी को हटाया। हरीश को सीएम बनाने के लिए एनडी की कुर्सी हिलायी जाती रही। फिर निशंक के लिए खंडूड़ी को हिलाया गया और फिर हरीश के लिए बहुगुणा की कुर्सी हिली। मजेदार बात यह है कि कुर्सी पर निशाना साधने के लिए हर बार बड़ी डील, बड़ी गेम मुद्दे बने, लेकिन निजाम बदलते ही ये मुद्दे हाशिये पर चले गए। 14 साल के इतिहास में एक भी वाकया ऐसा नहीं है कि किसी भी पार्टी के सदस्यों ने राज्य हित के किसी मुद्दे पर वैसी गोलबंदी दिखाई हो, जैसी कुर्सी के लिए दिखाई जाती रही है, जबकि उन्हें भी साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि उत्तराखंड हर मोर्चे पर पिछड़ रहा है। सूबे में भाजपा या कांग्रेस किसी भी पार्टी सरकार रही हो, लेकिन तरक्की की सियासत किसी भी सरकार में नहीं हुई। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते राज्य में सियासी अस्थिरता का माहौल कभी खत्म ही नहीं हुआ। उसी का नतीजा है कि ये राज्य न तो ऊर्जा राज्य बन पाया और न पर्यटन राज्य, क्योंकि तरक्की की सियासत के बजाय यहां सिर्फ कुर्सी की सियासत होती रही। अब यदि मुख्यमंत्री खेमे के लिये मौजूदा परिस्थितियां असहज करने वाली हैं तो उन्हें भी वही काटना पड़ रहा है कि जो अतीत में उन्होंने बोया था।